मंगलवार, 26 जनवरी 2010

जिंदगी

मेरे भाई गौरव ने आज पहली बार एक कविता लिखी और मुझे भेजी. जीवन के छुए अनछुए पहलु अपनी झलक दिखा कर हम सभी के अन्दर छिपे एक कलाकार को कभी ना कभी बाहर ले ही आते हैं, ऐसा ही कुछ इनके साथ भी हुआ. और उसी कवित्व भाव को बनाए रखने के लिये और उभरती प्रतिभा को निखारने के लिये अपने ब्लॉग पर पहली बार किसी और की कविता पोस्ट कर रही हूँ . आप सभी से स्नेह बनाए रखने की उम्मीद करती हूँ. धन्यवाद.


जिंदगी भी एक अजीब तमाशा है..
कभी आशा है कभी निराशा है.. !!

आँखे खुली हो तो उम्मीद नज़र आती है
और ये बंद आँखों मैं भी सपना दे कर जाती है..!!

क्या शिकायत है अपनों से ,
गिला है अपने ही सपनो से ...!!

बूढी दादी की वो कहानियाँ अब कहाँ हकीकत बताती है.
सपने वाली वो परी अब कहाँ रोज़ मिलने आती है ...!!

इस जिंदगी की रफ़्तार मैं मैंने खो दिया अपनों को,
ख़ुशी के सागर की तलाश मैं मैंने खोया छोटे छोटे सपनो को ..!!


आज जब उम्र ढल रही,
जिंदगी की वो तमाम बातें याद आती है ..!!

कभी ख़ुशी के वो पल आँखों मैं आंसू ले आते हैं,
कभी गम के सागर मैं खुद को तनहा पातें हैं..!!

सोमवार, 25 जनवरी 2010

नमक रोटी

"जसुमति नंदन रोटी खावे,
भीम रे जैसो बड्को होवे"
"क्या माँ...तू रोज़ एक ही बात कहे है.." मुझे नी खानी सूखी रोटी- अचार...... तीखा लगे है अचार, तू दही क्यूँ ना लाती? "
"कल ला दूंगी मेरे लाल ... आज खा ले रे, अब अपनी माँ को और ना सता, चल खा ले."

"जसुमति!!! ओ जसुमति!!!"
"सुण.... कल गणतंत्र दिवस के जुलुस में तेरे लाल को ले जाना है,शहर जाना है री , सुबह जल्दी उठ जाना."
"बापू.... मैं भी शहर चलूँगा?"
"हाँ...बेटा"

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दूसरे दिन शहर में गणतंत्र दिवस के जुलुस और नेताजी के भाषण के बाद सबको लड्डू और समोसा दिया जाता है .

छोटू बड़े जतन से खाता है और अपनी माँ से कहता है,"देखा माँ, नमक रोटी से कोई भीम नी होता, वो नेता जी के घर
में लड्डू खाते हैं तभी तो इतने बड़े हो गये हैं . अब तो मेरे वास्ते लड्डू लावेगी?"