शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

80 साल


धुंधली मछलीनुमा आँखों के पानी में घिर जाने से पहले
मेरी उम्र 80 से कुछ कम थी, शायद 20 या 21 घंटे कम.
मेरी याददाश्त का धोखा
उम्र की घड़ियों से कहाँ झूला करता था?
आने वालों के समय में
मैं निरंतर जवान हुये बांस की कोमल टहनी रही,
जाने वालों को इसी तरुण याद से ईर्ष्या रही.

तुम्‍हारे आने का सबब
हो सकता है मुझ से कुछ पाना ना रहा हो,
मुझमें से गुज़रे लम्‍हों की ईंटों से बनी है ये दीवारें
कुछ ईंटें तुम अपने लिए भी लेते जाना

कौन कहता है कि बाल पके हों तो
भीतर की पीड़ाएं भी पक जाया करती हैं ?
किसी बाल की सफ़ेदी इस लायक़ नहीं होती
कि कह सके वह पीड़ा को ठीक उन्‍हीं शब्‍दों में
जिन शब्‍दों में आई थी वह ख़ुद तक

रीढ़ की पहली हड्डी से आखिरी तक,
नुकीली कीलों पर खड़े हो पाने के जतन को,
नई कोंपल,
समझने की कोशिश में तोड़ती है
खुद की शाखाएं
और देने को सहारा इस अधमरे शरीर को,
जूझती है पिघलते समय के पलों से.

हज़ार शुक्रिया कहना कम लगता है,
उसे दूँ दुआएं चिरायु, अमर होने की,
शायद कर सके तीमारदारी,
वो उन सब बूढों की जो मरना चाह कर मर नहीं पाते,
जिनके लिये मौत इसलिए आती नहीं कि
उनके हिस्से के दर्द अब तक चुके नहीं!!

31 jan 2011

गुरुवार, 16 जून 2011

आओ, जी लें.

जीवन को जीने की कला शायद जीवन को लम्बे समय तक जीने, हजारों अनुभवों से गुजरने और हज़ारों तरीकों से जीने के बाद भी सीखी नहीं जा सकती, और कभी यूँ भी होता है कि जीवन खुद से ही एक पल में, सब अनुभवों को दरकिनार करते हुये, बोधि होने कि स्थिति जैसे, तुरंत जीना सीखा देता है.

ख़ुशी और दुःख जीवन के साथ चलने वाले दो साथी हैं, कभी एक का साथ ज्यादा होता है कभी दुसरे का साया हमसफ़र होता है. हर कदम पर जो साथ दे, उसे हमसफ़र कह सकते हैं... हालांकि अधिकतर जीवन हमसफ़र के होते हुए भी अकेले ही बीतता है. जीने की कला यहाँ पर बहुत साथ देती है, साथी को खुश देख कर खुद खुश रहने का हौसला देती है, (उत्साह वर्धन और प्रेरणा की कमी होते हुए भी) यह इसलिए नहीं कि सामने वाले की ख़ुशी ही सब कुछ होती है, बल्कि यह इसलिए है कि हम स्वयं में ही एक ख़ुशी की स्थापना चाहते हैं. स्वयं हर पल खुश रहना चाहते हैं. साधन चाहे जो भी हो, अनंत समय तक स्वयं की खुशियों को स्थायित्व देना लक्ष्य रहता है. इस कारण हमसफ़र को ख़ुशी देते हुये स्वयं ख़ुशी पा लेना मूलतः प्रेम से मिलने वाली ख़ुशी का ही रूप है.स्वार्थ यहाँ भी है पर ना हो तो ख़ुशी कि आवश्यकता ना रहे.

कुछ साधन बुरे होते हुए भी प्रयुक्त किये जाते हैं, तब जीने की कला का क्षय होता है. शायद अपेक्षाएं इतनी अधिक रहती हैं कि उसे पूरा करने के लिये सब कुछ जायज़ प्रतीत होता है. अतीत अथवा भविष्य में किसी को पीड़ा देकर भी अपने लिये सुखमय जीवन की कामना को गलत होते हुये भी गलत इसलिए नहीं कहा जा सकता कि आखिर इंसान जीता तो अपने लिये ही है. तब यह जरूर पूछा जा सकता है कि क्या नैतिकता का प्रभाव उसे अपराध करने से रोकने और अपराध हो जाने पर अपराध बोध से भरने में असंतुलित मनः स्थिति जगाता है? अथवा नैतिकता उसने कभी जानी ही नहीं? हालांकि इस तरह मिलने वाली ख़ुशी क्षणिक है और बेचैनी, अवसाद का मूल भी है.

अगर जीवन जीने की कला की आवाज़ सुनें तो वो कहती है कि जो भी पल जियो, उसे अभी इसी क्षण में जियो. इसी पल में अर्थात इसी ही पल में, ना उस पल में जो गुज़र गया और ना उस पल में जो आने वाला है. जैसे जिस समय आप पानी पी रहे होते हैं, आप पानी की शीतलता को अपने कंठ में अनुभव कर लेना चाहते हैं. प्यास पानी के कारण नहीं बुझती, बल्कि कंठ को मिली तरावट के कारण बुझती है. तरावट की स्मृति आपको वो तरावट कभी अनुभव नहीं करा पाती ना ही तरावट का भविष्य. अगर जीवन जीने को पानी पीने की तरह मानें तो जिस समय आप पानी पी रहे हैं, उस ही समय जी रहे हैं, उसका अनुभव भी उस ही समय कीजिये, यानि उस ही पल में जी लीजिये.

अगर अभी, इस समय आपने अपने भीतर स्थापित ख़ुशी को पा लिया है, ढूंढ कर सहेज लिया है तो आने वाले पल को भी अपने हाथ में जानिये, जबकि आने वाले पल के बारे में सोचने की और चिंता करने की आवश्यकता आपको कभी नहीं होती. बस एक तैयारी की जरूरत है जो किसी भी अवांछित समय में जीवन जीने की कला की तरह साथ दे. कैसी तैयारी?? तैयारी इसी ही पल में जी पाने की :) , तैयारी इसी पल को भरपूर ख़ुशी देने की, तैयारी इस पल को समझ सकने की, तैयारी इस पल को पहचान पाने की. कि जो कुछ है वो अभी ही है, इसी ही समय है, इसी ही पल में है, ना इस पल के पहले कुछ था और ना इस पल के बाद कुछ होगा. आओ, जी लें, इस पल को.

शुक्रवार, 27 मई 2011

संज्ञा

उदासी

आँख मूँद लेने के बाद,
नींद में दिखती है नींद,
होता है
सपनों का गणित,
होता है
बिना हथियार क़त्ल, किसी की यादों का.
और
होती है,
कवायद, मुंह अँधेरे ना उठ पाने की.
टूटते हैं
तंतु कुछ मुस्कान के.
बिखरती हैं,
साँसे संग प्राण के.
होती है
खुशियों की रवानगी.
बस
नहीं होती
उदास होना किसी की मजबूरी .

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बेचैनी

नहीं भटकती घड़ी की सुइयां कभी,
एक गति से भागते हुये.
नीला आकाश अपनी
जगह पर रहता सर्वदा स्थिर.
उँगलियों के नाखून भी
सदैव शिरा हीन, धमनी रहित.
बस,
मन बदलता रहता है करवटें.
ना एक गति,
ना स्थिरता,
और ना उदासीनता.
हमेशा कुछ नये की ललक
और सदा अकुलाहट.
दरवाजे मन के बंद करके देख लो,
बेचैनी खिड़की के रास्ते आने को बेचैन रहती है.






गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

दया. क्रोध, स्नेह... जाने क्या?




मन में उठते विचारों को बुहारते हुए,
कभी दिल करता है कि इन्हें,
छोड़ आऊँ किसी एक चौराहे पर,
जहां आते जाते राही,
चुन कर ले जाएँ,
अपने मन पसंद विचार,
और उन्हें अमर कर दें... मेरे नाम के बिना.

फिर कभी उन्ही को चुन कर,
सहेज कर रख लेने का मन करता है,
कि एक सुन्दर से चित्रकारी किये हुए,
टीन के डिब्बे में,
बेतरतीब... डाल कर रख दूं इन्हें
और मैं सुनती रहूँ,
इनके खिलखिलाने का स्वर.

और जब दम घुटता हो इनका,
तब इनकी चीख पुकार सुन,
दिल से बाहर निकाल सहला दूं
अपने प्यार भरे स्पर्श से...
और इनके आंसुओं को विदा कर दूं
चाँद की डोली संग
ताकि इनकी हंसी
हवाओं में देर तक गूंजती रहे.


शुक्रवार, 25 मार्च 2011

प्रेम राग

1 .
जाने क्यों...!!
मुझे लगता है कि
मैं नहीं तो उदास हो तुम.
हो सकता है तुम उदास ना हो,
पर अब `तुम` और `मैं` में
फर्क करना आसान नहीं पाती.

जानती हूँ तुम अब आवाज़ नहीं दोगे,
नहीं कहोगे कुछ,
इसीलिए बिना बताये,
मैं चली आती हूँ, तुम्हारे ख्यालों में...
संगीत जहां,
मुझे ढूँढने का गूँज रहा होता है.
मैं उसकी ताल पर झूमती हूँ, लहराती हूँ
और
बिना रूकावट चख लेती हूँ तुम्हारी आँखों को.
तभी जान पाती हूँ कि
सागर छलकने से पहले,
प्रेम पगे आंसुओं का स्वाद मीठा होता है,

2.
जाने क्यों...!!
मैं चाहती हूँ कि
तुम्हारी बातों में मेरा समावेश
इतना कोमल हो कि, एकाकार होने का ,
प्रमेय संक्षिप्ततर ना रहे
मैं फ़ैल जाऊं उन सारी जगहों में,
जहां तुमने कभी लगाया हो
कोई पूर्ण अथवा अर्ध विराम
और
तुम उस नज़ाकत से समेट लो मुझे,
जैसे जाता हुआ सूरज
समेटे अपनी किरणें.

3.
जाने क्यों...!!
सब फासले हवाओं में
तिरा देने के बाद भी ,
और
तुम्हारी पलकों तले
सिमट आने के बाद भी
बचता है एक रेतीलापन और शुष्कता.
तब,
ना चाहते हुये भी,
कठोरता अपनाते हुये,
पूरे निश्चय से पूछना चाहती हूँ तुमसे...
"क्या ज़ुबां की खुश्की,
रेगिस्तान की शुष्कता से कम हुआ करती है?"

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

एक हाथ दूरी

तुम्हारा एक हाथ जितना दूर हो जाना
मेरे लिये सदियों की दूरी हो जाना हुआ करता ,
तुम जब अपने नाराज़ होने की बात कहते,
इन मीन सी आँखों से बरसता जल,
जानते हुये भी कि जल बिन नहीं रह पाती मीन ,
मैं सूख जाने को तैयार रहती,
तुम और उदास हो जाया करते , मैं और सूख जाती....
क्यारियों में दम तोड़ते पादप और निढाल पड़ी "मैं" ,
एक साथ प्रार्थना में संलग्न हुआ करते,
जाने कैसे हम दोनों की प्रार्थना एक साथ स्वीकार हुआ करती!!
तुम्हें याद आता कि आज शाम क्यारी में पानी डालना भूल गये हो...
उसे याद आता कि "मैं" सूख रही हूँ,
और मुझे जीवन दान मिल जाता.
मेरा खिला चेहरा और तुम्हारा हमेशा का सवाल, "अब क्या हुआ?"
क्यारी और मुझे एक साथ सींचने के लिये
एक हाथ दूरी का मिटना जरूरी हो जाता.
बाहर की वर्षा में भीगती क्यारी
और
भीतर हम दोनों प्यार की वर्षा में खोए खोए
किया करते .....
हाथ भर की दूरियों को सदा दूर रखने का वादा .

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

valentine day special - प्रेम की भाषा

महिमा मधुर स्वर में कुछ गुनगुनाते हुये रसोई में खाना पका रही थी, तभी उसका 7 साल का बेटा शोभित वहाँ आया और बड़े प्यार से उसे बताने लगा, " माँ, माँ, मुझे किसी से प्यार हो गया है."
महिमा को यह सुनकर बड़ी हंसी आई, पर उसने हंसी रोक कर बड़े प्यार से अपने बेटे से पूछा," अच्छा जी! किस से प्यार हो गया है आपको?"
अब शोभित थोडा असमंजस में आ गया, कुछ सोचते हुये उसने कहा,"यही तय नहीं कर पा रहा हूँ....!!! मुझे पेड़ पर फुदकने वाली चिड़िया भी प्यारी लग रही है और भाग भाग कर सताने वाली गिल्लू गिलहरी भी , अपनी बगिया का लाल गुलाब भी और ऋतू की बगिया की तितली भी...!!" कहते कहते वो कुछ सोचने की मुद्रा में खड़ा हो गया.
तब महिमा ने उस से फिर एक सवाल पूछा,"अच्छा बताओ तो, तुम्हे इन सब से प्यार क्यों हो गया है?"
शोभित ने बहुत खुश होते हुये कहा," हाँ माँ, यह मुझे पता है कि मुझे इन सब से प्यार क्यों हो गया है..."
"क्यों हो गया है जी, बताइए.!!!! माँ ने हैरानी से पूछा.
"क्योंकि वो जो फुदकने वाली चिड़िया है ना.. माँ, गुस्सा ना होना,(उसने एक छोटी सी सांस ली ), जब उसके घोंसले में छोटे छोटे बच्चे थे, तब वो दाना लेने नहीं जा सकती थी, तब मैं चुपके से आपकी रसोई से चावल उठा कर उसे दे आता था, सॉरी माँ.(उसने सर झुका कर कहा) पर अब वो मेरी दोस्त हो गई है और मुझे अपने नन्हे बच्चों से भी खेलने देती है." अब उसकी आँखें दमक रही थी.
महिमा बहुत ध्यान से उसकी बात सुन रही थी, शोभित ने उसकी तन्द्रा तोड़ी , "नाराज़ हो क्या माँ? "
"अरे नहीं बेटा, तुमने बहुत अच्छा काम किया है, मैं तो तुमसे बहुत खुश हूँ. तुमने एक नेक काम किया है."
शोभित मुस्कुरा दिया और उतावला होकर कहने लगा," और वो जो गिलहरी है ना, जो आगे आगे भागती रहती है, उसके साथ मैं खूब आँख मिचौनी खेलता हूँ, कभी वो छुप जाती है और कभी मैं, बड़ा मज़ा आता है मुझे उसके साथ."
महिमा ने प्यार से उसके सर पर हाथ फेर कर कहा,"अच्छा...!"
"हाँ माँ, और पता हैं अपनी बगिया का लाल गुलाब कितनी खुशबू देता है...!! माँ, ऐसा लगता है कि उसे कभी भी तोडा ना जाये, ताकि वो ऐसे ही खुशबु बिखेरता रहे और हम उसे देख मुस्कुराते रहें और ऋतू की बगिया की रंग बिरंगी तितली आकर उसके साथ खेलती रहे. अब तुम्ही कहो माँ, मुझे इनमें से किस से प्यार हुआ है?"
"ओहो! यह तो बड़ी मुश्किल है , पर मुझे तो लगता है कि तुम्हे इन सब से प्यार है." महिमा ने आश्चर्य और निश्चय के साथ कहा.
शोभित ने बहुत खुश होते हुये कहा,"बिलकुल सही माँ, तुम्हे कैसे सब पता चल जाता है?"
माँ ने उसे प्यार से गले लगाते हुये कहा कि," जैसे तुम और तुम्हारी दीदी दोनों मुझे प्यारे हो, वैसे ही यह सब तुम्हे प्यारे हैं. है ना?"
"हाँ माँ." शोभित बहुत खुश था.
"प्रकृति से प्यार अपने आप से प्यार करना होता है शोभित, जब तुम इन सबका ध्यान रखोगे तो यह सब भी तुम्हारा ध्यान रखेंगे. इसलिए हमेशा इस प्यार को और बढ़ने देना. हो सके तो अपने दोस्तों में भी यह प्यार फैलाना."

माँ से समर्थन पाकर शोभित स्वयं को सबसे खुशनसीब जान पुनः प्रकृति के साथ खेल में रम गया. महिमा प्रसन्नचित्त अपने बच्चे को अनेकानेक आशीर्वाद दे रही थी.

शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

कंटीली झाड़ी का प्रेम



अनियमित बिंदु के मध्य ,
संतुलित आकार लिये,
उन दोनों का मिलना,
नियति का
सांकेतिक खेल नहीं कहा जा सकता,
कुछ और उम्मीदों में डूब कर ,
उनकी आँखें नीली नहीं हुई होंगी...
किसी और संपर्क की प्रेरणा से ,
उन्होंने यह प्रेम राह चुनी होगी...
क्योंकि
दोनों के मिलने से उठी
वजनदार और निश्चित गोलाई की तरंगें
सृष्टि के अंतिम छोर तक
महसूसी गई थी,
आल्हाद और सुन्दरता का
अद्भुत जादू था बिखरा
इसी जमीन पर,
देखा जिसे खुशनुमा फूलों ने भी
और पहरेदार काँटों ने भी,
लड़की के नरम गाल.
गुलाबी आभा लिये और निखरे थे,
लाल हो जाने की हद तक ...
लड़के के साहस पर
प्रकृति ने मुहर लगाईं थी.
अपना अंशदान दे कर...
फूल सरलता से ग्राह्य कर मुस्कुरा दिये ,
कांटे अपनी गिरफ्त में लिये
उन्हें उलझा गये,
प्रेम का लगे तोड़ने एका
बन कर पहरेदार,
कंटीली झाड़ी ने किया
दोनों को तार तार,
प्रेम के आंसुओं ने भी
आखिर मानी हार,
जिद काँटों की
निर्ममता पर उतर आई,
चिंदी चिंदी हुये
दोनों के अरमानों से
उसने कंटीली झाड़ी सजाई,
प्रेम सह ना पाया
यह निर्दयता,
नम ह्रदय से उसने
ली दोनों से विदा,
जुदा हुये अस्तित्व को
भला किसने है पाया....
संदेह के काँटों से
भला कौन जीत है पाया?